वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 पर उच्च स्तरीय कार्य-समूह की रिपोर्ट

Hindi Version of Vidhi's High-Level Working Group's Submission to The Joint Parliamentary Committee on The Forest (Conservation) Amendment Bill 2023

29 मार्च 2023 को केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय ने लोक सभा में वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम बिल, 2023 (“बिल”) पेश किया। इस विधेयक में वन संरक्षण कानून, 1980 (“FCA”) के प्रावधानों में संशोधन प्रस्तावित किये गये हैं। विधेयक के प्रावधानों को जांचने के लिए विधेयक संसद स्तर की एक जॉइंट कमिटी (“JC”) को सौंपा गया है और इसकी रिपोर्ट जुलाई 2023 तक आने की संभावना है। JC ने एक प्रेस विज्ञापन CBC 31201/11/0001/2324 के माध्यम से प्रस्तावित संशोधन पर टिप्पणी और सुझाव मांगे थे। इसी सन्दर्भ में यह ज्ञापन तैयार किया गया है जिसमें विधेयक को ले कर चिंताएं और सुझाव व्यक्त हैं। 

विधेयक के प्रावधानों के विश्लेषण और ज्ञापन तैयार करने के लिए विधी सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा एक उच्च स्तरीय कार्य-समूह (“कार्य-समूह”) का गठन किया गया। इस कार्य-समूह में जाने माने पर्यावरण विशेषज्ञ, आईएएस, आईएफएस से सेवानिवृत्त अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता और वकील शामिल किए गये। कार्य-समूह ने अलग-अलग क्षेत्रों व पृष्ठभूमियों से संबधित विशेषज्ञों के सुझावों को समावेशी और भागीदारीपूर्ण तरीके से सम्मिलित किया। दो बार ऑनलाइन बैठक करने के बाद इस ज्ञापन को 18 मई 2023 को दिल्ली में हुयी बैठक में अंतिम स्वरूप दिया गया। इस ज्ञापन को तैयार करने के लिए अनेक सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा किये गये अध्ययन, अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन, प्रकाशित लेखों का उपयोग किया गया।

उच्च स्तरीय कार्य समूह के सदस्य, नई दिल्ली में 18 मई 2023 को वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 पर अपने प्रस्तावना को विचार कर रहे हैं।

इस ज्ञापन को 6 अध्याय में बांटा गया है जिसमें हर भाग में विधेयक के प्रत्येक प्रावधान पर गहराई से चर्चा प्रस्तुत है, प्रावधान से सम्बन्धित चिंतायें व साथ ही उससे जुड़े सुझाव भी।

अध्याय 1 में विधेयक में डाली गयी नई प्रस्तावना पर चर्चा है। जहां यह प्रस्तावना वन संरक्षण कानून के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करती है, अन्य संशोधनों के साथ तुलना मात्र करने पर पता चलता है कि इस विधयेक के उद्देश्य और प्रस्तावित प्रावधानों में कोई समानता नहीं है।

अध्याय 2 में धारा 1क (1) के शामिल करने पर समीक्षा है। इस प्रावधान में FCA के अंतर्गत भूमि की अलग-अलग श्रेणियों का विवरण है। प्रस्तावित संशोधन कुछ वन श्रेणियों को लेकर अस्पष्टता व अपवाद पैदा करता है। भारत के अलग-अलग भू-भागों के उदाहरण ले कर इस पर विस्तृत चर्चा की गयी है। इन श्रेणियों में भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत अधिसूचित किए जाने वाले प्रस्तावित वन, 25 अक्टूबर 1980 से पहले सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज भूमि और वे वन शामिल हैं जो न तो अधिसूचित हैं और न ही वन के रूप में दर्ज हैं। इस भाग में टी.एन.गोदावर्मन बनाम भारत सरकार केस में सर्वोच्च न्यायालय के 12 दिसंबर 1996 के फैसले से पहले राज्य सरकारों द्वारा गैर वानिकी कार्यों के लिए (बिना FCA की धारा 2 की मंज़ूरी के) हस्तांतरित वन भूमि को भी छूट देने पर चिंताएं व्यक्त की गयी हैं।

कार्य-समूह का सुझाव है कि उपधारा (ख) में एक स्पष्टीकरण जोड़ा जाये। साथ ही वन संरक्षण कानून के उद्देश्य और सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों को अनुकूल बनाने के लिये एक नई उपधारा (ग) को जोड़ने का सुझाव है। यह सुझाव एक तालिका के रूप में भी पेश किये गये हैं।

अध्याय 3 में प्रस्तावित धारा 1(क) की नयी उपधारा 2 की योग्यता का आंकलन किया है। इसमें कई प्रकार की भूमि श्रेणियों पर वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधान लागू होने से छूट दी गयी है। इसमें शामिल है – सड़क और रेल पटरियों के दोनों तरफ 0.10 हैक्टेयर तक वन भूमि, ऐसी वृक्षारोपित और वनीकरण वाली भूमि जो किधारा 1(क) की उपधारा (1) के अंतर्गत न आती हो, देश की अंतर्राष्ट्रीय सीमा/LOC/LAC के 100 कि.मी. के अन्दर किसी भी ‘स्ट्रेटेजिक लीनियर’ (रणनीतिक या सामरिक सड़क, रेल इत्यादि) परियोजना’ और 10 हेक्टेयर तक सुरक्षा और सार्वजनिक उपयोगिता से जुड़े निर्माण कार्यों के लिए वन भूमि। कार्य-समूह ने इस खुली और पूरी छूट के संभावित प्रभावों पर चर्चा करते हुए पाया कि इससे वनों का विखंडन और वन्यजीव के प्राकृतिक आवास और आने-जाने के रास्तों का विनाश होगा। ‘स्ट्रेटेजिक लीनियर’ परियोजनाओं को पूर्ण रूप से FCA से छूट देना गैर ज़रूरी और अनुचित पाया गया क्यों कि वैसे भी इन परियोजनाओं को मंज़ूरी देने की प्रक्रिया में केन्द्रीय सरकार तत्परता और तेज़ी से कार्यरत है। साथ ही कार्य-समूह ने हिमालयी क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण कार्यों के चलते भूस्खलन और बादल फटने जैसी पर्यावरणीय आपदाओं के बढ़ने पर प्रकाश डाला है। इसके अलावा कार्य-समूह ने यह भी पाया कि प्रस्तावित संशोधन राष्ट्रीय वन नीति 1988 और FCA के उद्देश्यों से मेल नहीं खाता। सुरक्षा और सार्वजनिक सेवाओं के नाम पर परियोजनाओं को खुली छूट देना FCA का उल्लंघन भी करता है।

कार्य-समूह ने यह भी पाया कि भारत में क्षतिपूरक वनीकरण (कोम्पेंसटोरी एफोरेस्टेशन) कार्यों से विकास परियोजनाओं में उजड़े हुए प्राकृतिक तंत्र का न तो पुनर्स्थापन होता है और ना ही कुदरती जैविविधता का। इसलिए प्राकृतिक वनों का बचाव और प्रबंधन को प्राथमिकता देनी होगी ना की इनकी जगह वृक्षारोपण करने को। 

कार्य-समूह ने धारा 1(क) की उपधारा (2) को हटाने का सुझाव दिया क्योंकि पहले ही FCA की धारा 2 के तहत अनुमति तेज़ी से दिया जा रहा है। और साथ ही पूर्ण छूट देने से वनों, वन्यजीवों और प्राकृतिक तंत्र की सेवाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालना – यह FCA के मूल उद्देश्यों से मेल नहीं खाता। सुझाव तालिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

अध्याय 4 में कार्य-समूह ने FCA की धारा 2 के अंतर्गत जिन गतिविधियों को वन मंजूरी से छूट दी गयी है उस पर चर्चा है। चिड़ियाघर-सफ़ारी और ईको टूरिज़्म को छूट देने और वन संरक्षण, संवर्धन और प्रबंधन के सहायक कार्यों में जोड़ने पर कार्य-समूह ने चिंता व्यक्त की। इसी के साथ धारा में जोड़ा यह प्रावधान – ‘इस प्रकार का कोई अन्य प्रायोजन जो केंद्रीय सरकार आदेश द्वारा विनिद्रिष्ट करे’ – भी चिंता का विषय है। इससे बिना जन परामर्श और संसदीय प्रक्रिया ही कानूनी बदलाव करने की अपार शक्ति अधिकारियों को मिलती है। इसमें परियोजनाओं के लिए ‘सर्वेक्षण और पूर्वेक्षण’ गतिविधियों को भी आम मंज़ूरी दे देने का प्रस्ताव भी वन संरक्षण के उद्देश्य के अधीन नहीं।

इन सभी गतिविधियों को पूरी छूट देना राष्ट्रीय वन नीति 1988 और FCA के उद्देश्यों की अवहेलना है क्यों कि यह वनों के दोहन पर नियंत्रण प्रणाली को ढीला करते हैं। ऐसे प्रस्तावित प्रावधानों को पूरी तरह से हटा देना चाहिए। ‘संरक्षण के लिए सहायक गतिविधियों’ के प्रावधनों के दुरूपयोग से बचने के लिए यह सुझाव आया है कि इन धाराओं में बदलाव कर जिम्मेदार अधिकारियों की जवाबदेही तय करने के लिए स्पष्टीकरण होना चाहिए। यह सुझाव एक तालिका के रूप में भी पेश किये गये हैं।

अध्याय 5 में वन आश्रित समुदायों के अधिकारों और आजीविकाओं पर प्रस्तावित संशोधन के प्रभावों को देखा गया है। इसमें कार्य-समूह ने मुख्य रूप से अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 तथा अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत कानून यानी पैसा 1996 के अंतर्गत स्थानीय समुदायों के सुरक्षित किये गये अधिकारों पर FCA में संशोधन करने से क्या प्रभाव पड़ेंगे, इस विषय पर चर्चा की है।

यह विधेयक विशेष रूप से वन आश्रित समुदायों के संवैधानिक अधिकारों – जैसे स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार, सूचना के अधिकार, निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी के अधिकार, और न्याय हासिल करने के अधिकार को कमज़ोर करता है। वन मंज़ूरी की प्रक्रिया में जिस तरह की छूट संशोधन विधेयक की धारा 1(क) और धारा 2 में प्रस्तावित हैं इसमें कोई दो राय नहीं कि इससे ऐसे जन अधिकारों पर प्रभाव पड़ेगा। जबकि यह अधिकार ऐतिहासिक हैं और पीढ़ियों से इस देश के वन-आधारित, आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी समुदायों का वन भूमि के साथ गहरा जुड़ाव रहा है। इन समुदायों के लिए आजीविका कमाने से ले कर सांस्कृतिक परम्पराओं और सामाजिक खुशाली का स्रोत हैं जंगल और ज़मीन। इसलिए कार्य-समूह का सुझाव है कि विकास और संरक्षण के सभी प्रयास वन आधारित समुदायों के अधिकारों, भागीदारी और मंज़ूरी को साथ लेते हुए, उनके इस गहरे प्राकृतिक जुड़ाव और सतत परम्पराओं का आदर करते हुए, चलाये जायें।

अध्याय 6 में धारा वार सुझावों का संक्षिप्त वर्णन पेश किया गया है।

उच्च स्तरीय कार्य-समूह के सदस्य (अंग्रेजी के आधार पर वर्णानुक्रम से क्रमबद्धित):

१. श्रीमती आकांक्षा सूद सिंह – राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता वन्यजीव चित्रपटकार

२. डॉ. अंकिला हिरेमाठ – वरिष्ठ उपसंबद्ध फेलो, अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन एकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एट्री)

३. डॉ. अरविंद कुमार झा (आईएफएस) – पूर्व मुख्य वन संरक्षक और निदेशक महाराष्ट्र (सोशल वन्यजीव विज्ञान)

४. डॉ. असद रहमानी – वन्यजीव वैज्ञानिक और पूर्व निदेशक, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी

५. श्रीमती भानु तटक, सह-संस्थापक – इंडिजनस रिसर्च एंड एडवोकेसी डिबांग, अरुणाचल प्रदेश

६. श्री बृज किशोर सिंह (आईएफएस) – पूर्व मुख्य वन संरक्षक – वन फोर्स, कर्नाटक

७. श्री देबादित्यो सिन्हा – लीड, क्लाइमेट और इकोसिस्टम्स, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी

८. श्री देव प्रकाश बांखवाल (आईएफएस) – पूर्व मुख्य वन संरक्षक और मुख्य वन्यजीव संरक्षक, असम

९. डॉ. ध्वनि मेहता – वकील और सह-संस्थापक, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी

१०. डॉ. हरेन्द्र सिंह बरगली – उपनिदेशक (उत्तर भारत), द कोरबेट फाउंडेशन

११. श्रीमती मधू शर्मा (आईएफएस) – पूर्व मुख्य वन संरक्षक, कर्नाटक

१२. डॉ. एम.डी. मधुसूदन – सह-संस्थापक, नेचर कंसर्वेशन फाउंडेशन

१३. श्रीमती मीरा चंद्रन – संरक्षणकारी और पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन विशेषज्ञ, केरल और कर्नाटक

१४. डॉ. एम.के. रंजीतसिंह (आईएएस) – प्रतिष्ठित संरक्षणकारी और वन्यजीव विशेषज्ञ

१५. श्रीमती नीलम अहलुवालिया नाकरा – सह-संस्थापक और अर्थव्यवस्थापक, अरावली बचाओ सिटीज़न मूवमेंट

१६. श्रीमती नीमा पाठक ब्रूम – समन्वयक, संरक्षण और आजीविका कार्यक्रम, कल्पवृक्ष

१७. श्रीमती ऋत्विका शर्मा – वकील और लीड – चरखा (संवैधानिक कानून केंद्र), विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी

१८. श्री विजय धसमाना– संचालक, अरावली बायोडिवर्सिटी पार्क, गुरुग्राम

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